मंगलवार, 30 अगस्त 2016

ओल्ड इज गोल्ड !

ओल्ड इज गोल्ड !





पुरानी चीजों को बड़ी हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता है।साइकिलों,घोड़ा गाड़ियों,बैल गाड़ियों को आउट ऑफ डेट करार दिया जा चुका है,लेकिन मज़ेदार बात ये है कि जहां पर आधुनिक चीजें भी फ़ैल हो जाती है या ज़वाब दे जाती है,वहां फिर से पुरानी चीजों की सहज याद आती है,क्योंकि वहां वे ही उपयोगी साबित होती है।
    अभी हमारे यहां लगातार चार दिनों तक जम कर बारिश हुई।इंद्रदेव की कृपा 'कोप' में बदल गई।बाढ़ के हालात पैदा हो गए।बिजली गुल हुई तो ऐसी गुल हुई कि पुरे 30 घण्टों बाद आई! इस बीच मोबाइल-नेट सबकुछ धीरे-धीरे ठप्प जो गए।रात में एक तरफ मूसलाधार बारिश दूसरी तरफ घुप्प अन्धेरा! जो अपने घर पर इन्वर्टर लगा इतराते घूमते थे,जब पूरा मोहल्ला घुप्प अँधेरे में डूबा होता और वे अपने घर को इन्वर्टर के बल पर जगमग कर फुले नहीं समाते थे,30 घण्टों की बिजली गुल ने उनके इन्वर्टर के भी होश फाख्ता कर दिए!कुछ घण्टों पहले जो इन्वर्टर खिलखिलाकर हँस रहा था,वो दस-बारह घण्टे बाद ही मुँह लटकाये पड़ा था!
     ऐसे में याद आई तो "लालटेन" (लेंटर्न) की! मैंने घर के स्टोर में पड़ी 25-30 वर्ष पुरानी,जंग लगी लालटेन निकाली,जिसमें शायद 8-10 वर्ष पुरानी बाती भी लगी हुई थी,झाडी-पोंछी और मिट्टी का तेल भर दिया।दियासलाई की एक तीली ने लालटेन को घर का चिराग बना दिया!मेरे 10 वर्ष के बेटे ने जब ये अजूबा देखा तो बोल पड़ा-"पापा,आज कौनसी दीवाली है?" उसने अभी तक इस तरह के कंदील ही दीवाली पर देखे थे!
    आधुनिकता की चकाचौंध में कुछ तथाकथित गयीगुजरी, पुरानी,आउट ऑफ डेटेड घोषित हो चुकी चीजे भी समय आने पर अपनी उपयोगिता दिखा कर सबक दे दिया करती है कि इस दुनिया में कब किसकी ज़रूरत पड़ जाए कहा नहीं जा सकता!!

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

!! जीवन तो है ही संघर्ष का नाम !!

जीवन तो है ही संघर्ष का नाम !
   
    'क्या आप परेशान है? बिमारी,आर्थिक तंगी, असफलता,घरेलू झगड़े,आपका पीछा नहीं छोड़ रहे?बेटा-बेटी आपकी आज्ञा के विरुद्ध काम करते हैं?पति-पत्नी में झगड़ा होता रहता है?भाई-बहनों से मनमुटाव है?आपसी संपत्ति का झगड़ा है?भाड़े के फ्लेट में रहते हैं? व्यवसाय में अपने दोस्तों-सम्बन्धियों से पीछे रह गए हैं?लड़का-लड़की बड़े हो गए और उनकी शादी नहीं हो रही है?उधारी अटक गई है?नौकरी कर रहे हैं?अगर आप भी इनमेसे किसी एक या अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं और उनका समाधान चाहते हैं तो हमसे सम्पर्क करें।'
     इस तरह के तमाम विज्ञापन हमारे सामने तकरीबन रोज ही आते रहते हैं,जिनमें कईं 'ज्ञानीजन' तरह तरह के उपाय भी इन समस्याओं के हमें सुझाते हैं।इतना ही नहीं,हमारे आसपास के कईं मिलने वाले भी इन समस्याओं को दूर करने के बहुत से अज़ीबोगरीब रास्ते दिखाते हैं,जिनकी कोई विश्वसनीयता ही नहीं होती! कमाल देखिये कि ऊपर बताई गई समस्याओं मेंसे एक या अनेक हम मेंसे हर एक के जीवन में अवश्य होती ही है।किसी के जीवन में एक,तो किसी के जीवन में अनेक समस्याओं का होना कोई नईं बात नहीं है।नयी बात तो तब होगी,जबकि इस संसार में कोई एक,जी हाँ कोई एक इंसान ऐसा मिल जाए जो कहे कि मुझे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है,कि मेरे पास हर तरह का सुख है।और वास्तव में ऐसा हो भी! क्या ये सम्भव है? क्या जिंदगी मेसे हर तरह के दुःख को निकाल कर सिर्फ सुखों को ही कायम रखा जा सकता है? 
     जी नहीं,ये कदापि संभव ही नहीं है।जीवन तो है ही संघर्ष का नाम,जिसमें तरह-तरह के दुःख, परेशानियां आती ही रहती है।हाँ इसकी मात्रा में अवश्य फर्क हो सकता है।कोई कम दुखी,कम परेशान हो सकता है तो कोई ज्यादा।इन दुखों से,इन परेशानियों से हम बाहर निकलने का,कम करने का प्रयास कर सकते हैं और हमें करना भी चाहिए,जो हम करते भी हैं,किन्तु इसके लिए हमें किसी के बहकावे में आकर गलत मार्ग का चयन कभी नहीं करना चाहिए।पैसे लुटाने से और अंधविश्वासों की राह का पथिक बनने से अगर दुःख-परेशानियां-समस्याएं कम या खत्म हो जाती तो पैसे वालों और अंधविश्वासों का गोरखधंधा चलाने वालों की ज़िन्दगी में कोई दुःख-परेशानी होती ही नहीं और वे दुनिया में सबसे सुखी लोग होते !लेकिन क्या ऐसा है ? ज़रा आप अपने आसपास नज़र घुमा कर देखिये,हक़ीक़त आपको पता चल जायेगी!
     तो फिर आखिर इन तमाम तरह की परेशानियों-समस्याओं-दुखों को दूर करने का तरीका क्या है? तरिका है! तरीका ये है कि अपने भगवान् को,अपने आराध्य को याद करते हुए स्वयं में आत्मविश्वास, सकारात्मक सोच पैदा की जाए,दुःख और सुख दोनों को ज़िन्दगी का अनिवार्य हिस्सा मान कर सहज स्वीकार किया जाए,खुद दुःख, परेशानियां, समस्याओं से मुकाबला करते हुए भी प्राणी मात्र के दुखों,परेशानियों,समस्याओं को बांटने की भावना रखी जाए तथा दुखों-परेशानियों-समस्याओं को भगाने,दूर करने,कम करने का तथा सुखों को बुलाने का निरंतर पुरुषार्थ करते हुए जीवन बिताया जाए !जी हां,इन उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं है ज़िन्दगी को आराम से जीने का !दुखों,परेशानियों,समस्याओं को भी जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानकर ही इनकी पीड़ा को कम किया जा सकता।जिंदगी जीने के लिए हवा का होना ज़रूरी है,लेकिन क्या हवा के झोंकें के साथ उड़कर आने वाले और आँख में घुस जाने वाले कचरे को रोका जा सकता है?जीने के लिए पानी का होना ज़रूरी है,लेकिन क्या सौ प्रतिशत शुद्ध और क्रिस्टल क्लियर पानी की ही उम्मीद कभी पूरी हो सकती है?जीने के लिए खाना आवश्यक है,किन्तु क्या बिना मिट्टी/घासपूस/कचरे के अनाज पैदा किया जा सकता है? तो फिर ज़िन्दगी से सिर्फ सुखों की ही उम्मीद क्यों?
     ज़िन्दगी में कचरा,मिट्टी,घासपूस की तरह दुःख, परेशानियां,समस्याएं भी आती ही रहेगी,इन्हें दूर करते रहिये......फिर आएगी......फिर दूर कीजिए......फिर आएँगी......फिर दूर कीजिये ! ज़िन्दगी जीने का इससे बेहतर,सलीकेदार और सच्चा तरीका दुसरा है भी नहीं!
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गुरुवार, 4 अगस्त 2016

!! टूटी सड़क पर 'अच्छे दिनों' की बैलगाड़ी !!

टूटी सड़क पर 'अच्छे दिनों' की बैलगाड़ी ! 

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     पचास साल पुरानी सड़क,लगभग पैंसठ-सत्तर साल के,मोटा ऐनक चढ़ाये "बा'सा" ड्राईवर साहब, मूसलाधार बारिश और बाबा आदम के ज़माने की,बिना 'वाइपर' की बस,जिसमें हार्न के अलावा सबकुछ बजता है!और पैसेंजर फुल्ली भगवान् भरोसे !!ये हैं गाँवों की परिवहन व्यवस्था का कॉम्बिनेशन,जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।
     लडखडाती और खड़खड़ाती बस में आप बैठ कर जब अपने 15-20 किलोमीटर दूर गंतव्य पर पहुँचते हैं तब तक आपकी हालात भी उसी बस की तरह हो जाती है,और आपकी बॉडी का एक-एक पार्ट बोलने लगता है! हो सकता है आप इस बस में बैठ कर किसी शादी समारोह में जा रहे हो,और संभव है कि आपको शादी वादी भूलकर बस से उतर कर पहले किसी ओर्थोपेडिक्स के पास अपनी कमर का इलाज़ करवाने जाना पड़े!
     बुलेट ट्रेन,मेट्रो ट्रेन,लोकल ट्रेन.ए सी ट्रेन,हवाई टेक्सी आदि-आदि.....तमाम बातें शहरों-महानगरों के लिए! गाँव के बाशिंदों के लिए एक ढंग की सड़क और बस भी नहीं! क्यों? क्यों इतनी सस्ती और कमतर ज़िन्दगी मान ली गयी है एक गाँव वाले की? जहां पल पल झूठ, बेईमानी, मक्कारी, ठगी, लूट-खसोट की इबारत लिखी जाती रहती है,अच्छे दिनों की सारी सरकारी कवायद उसके हिस्से में,और जहां आज भी सच, ईमान, भोलापन, अपनापन, सहयोग की भावना बची हुई है,उसके हिस्से में भुखमरी,  गरीबी,  अकाल,  अभाव,  बेरुखी....! कहाँ है भारत भाग्य विधाता? 'गरीबी हटाओ' का झुनझुना जैसे पचास सालों तक जनता को बहलाता रहा,वैसे ही 'अच्छे दिनों' का ख्याली पुलाव भी क्या सचमुच कभी पक पायेगा?
     कांग्रेस-भाजपा को कोसने से कुछ नहीं होगा,क्यों कि घूम-फिर कर इन्हें ही आना है!दोष व्यवस्था में है,जो शहरों के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ,मिनरल वाटर पी कर उतना ही सोच पाती है! गाँव से उनको अनाज,दूध,सस्ता श्रम चाहिए और बदले में देने के लिए एक ढंग की सड़क भी नहीं! आखिर गाँव में तरक्की आए भी तो किस रस्ते !
     देश की सेवा की शपथ लेकर बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठने वाले मंत्रियों-अफसरों को कुछ वर्षों तक अनिवार्य रूप से गाँवों में बिठाए बिना भारत की आत्मा का कुछ नहीं हो सकता!
     "अच्छे दिनों" का ख़्वाब दिखाने वाले और उनको पार्टी ठेठ भारतीय माने जाते हैं।क्या वे इस पर कुछ विचार करेंगे???
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