गुरुवार, 4 अगस्त 2016

!! टूटी सड़क पर 'अच्छे दिनों' की बैलगाड़ी !!

टूटी सड़क पर 'अच्छे दिनों' की बैलगाड़ी ! 

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     पचास साल पुरानी सड़क,लगभग पैंसठ-सत्तर साल के,मोटा ऐनक चढ़ाये "बा'सा" ड्राईवर साहब, मूसलाधार बारिश और बाबा आदम के ज़माने की,बिना 'वाइपर' की बस,जिसमें हार्न के अलावा सबकुछ बजता है!और पैसेंजर फुल्ली भगवान् भरोसे !!ये हैं गाँवों की परिवहन व्यवस्था का कॉम्बिनेशन,जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।
     लडखडाती और खड़खड़ाती बस में आप बैठ कर जब अपने 15-20 किलोमीटर दूर गंतव्य पर पहुँचते हैं तब तक आपकी हालात भी उसी बस की तरह हो जाती है,और आपकी बॉडी का एक-एक पार्ट बोलने लगता है! हो सकता है आप इस बस में बैठ कर किसी शादी समारोह में जा रहे हो,और संभव है कि आपको शादी वादी भूलकर बस से उतर कर पहले किसी ओर्थोपेडिक्स के पास अपनी कमर का इलाज़ करवाने जाना पड़े!
     बुलेट ट्रेन,मेट्रो ट्रेन,लोकल ट्रेन.ए सी ट्रेन,हवाई टेक्सी आदि-आदि.....तमाम बातें शहरों-महानगरों के लिए! गाँव के बाशिंदों के लिए एक ढंग की सड़क और बस भी नहीं! क्यों? क्यों इतनी सस्ती और कमतर ज़िन्दगी मान ली गयी है एक गाँव वाले की? जहां पल पल झूठ, बेईमानी, मक्कारी, ठगी, लूट-खसोट की इबारत लिखी जाती रहती है,अच्छे दिनों की सारी सरकारी कवायद उसके हिस्से में,और जहां आज भी सच, ईमान, भोलापन, अपनापन, सहयोग की भावना बची हुई है,उसके हिस्से में भुखमरी,  गरीबी,  अकाल,  अभाव,  बेरुखी....! कहाँ है भारत भाग्य विधाता? 'गरीबी हटाओ' का झुनझुना जैसे पचास सालों तक जनता को बहलाता रहा,वैसे ही 'अच्छे दिनों' का ख्याली पुलाव भी क्या सचमुच कभी पक पायेगा?
     कांग्रेस-भाजपा को कोसने से कुछ नहीं होगा,क्यों कि घूम-फिर कर इन्हें ही आना है!दोष व्यवस्था में है,जो शहरों के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ,मिनरल वाटर पी कर उतना ही सोच पाती है! गाँव से उनको अनाज,दूध,सस्ता श्रम चाहिए और बदले में देने के लिए एक ढंग की सड़क भी नहीं! आखिर गाँव में तरक्की आए भी तो किस रस्ते !
     देश की सेवा की शपथ लेकर बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठने वाले मंत्रियों-अफसरों को कुछ वर्षों तक अनिवार्य रूप से गाँवों में बिठाए बिना भारत की आत्मा का कुछ नहीं हो सकता!
     "अच्छे दिनों" का ख़्वाब दिखाने वाले और उनको पार्टी ठेठ भारतीय माने जाते हैं।क्या वे इस पर कुछ विचार करेंगे???
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