शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

!! मानवता !!

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आज सवेरे घर से बाहर निकला तो एक जगह देखा कि कुतिया के छोटे-छोटे पिल्लै,कडकडाती ठण्ड से बचने के लिए एक दुसरे में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं....मुझे  बचपन के दिन याद आगये....कैसे कुतिया की 'डिलेवरी' पर मोहल्ले वाले,बच्चों की अगुवाई में  उसे गुड का हलवा बना कर खिलाते थे....उसके बच्चों के लिए टाट का घर बनाते थे.... उसके बच्चों और उसके लिए समय-समय पर खाने का प्रबंध करते थे....!!!! मुझे  मालुम  है  मेरे  कुछ'नयी पीढ़ी' के  शहरी  नौज़वान  दोस्तों को मेरी ये बातें अटपटी,नितांत 'गवारुं' और आश्चर्यजनक लगेगी लेकिन क्या करूँ....उस समय का सत्य तो यही था....!! आज देखता   हूँ ...इंसान  को  इंसानों  के लिए ही  फुर्सत  कहाँ  है ..!!! भीड़ में इंसान,गिरे हुए इंसान को कुचलते हुए निकल जाता है....,फुटपाथ  पे पड़े किसी असहाय इंसान को नज़रंदाज़ कर जाता है.... किसी भूखे की लाचारी समझे बिना उसे 'उपदेश' झाड जाता है......!! कुत्तों की  तो कौन कहे....!!! इंसान,इंसान के बारे में ही लगभग संवेदना -शुन्य सा जान पड़ता है....!! सोचता  हूँ उस समय 'सहज मानवता' के साथ जी रहे इंसान ने आखिर क्या खोया..... ????? और आज आपा-धापी में लगे,इंसानियत को दोयम दर्जे का मानने वाले  इंसान(???....) ने आखिर क्या पा लिया है...... ????***
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3 टिप्‍पणियां:

  1. ► अशोक जी , आपने उक्त वर्णित घटनाक्रम को एक सजग संवेदनशील इंसान होने के नाते लिख कर अपना दुःख साझा तो कर लिया ......और........ फेस बुक पर उपस्थित सज्ज़नों-सज्ज़नाओं ने उस पर बड़े-बड़े व्याख्यान भी लिख मारे......... परन्तु क्या कोई मुझे बता सकेगा जब अशोक जी उस दृश्य को निहारते हुए द्रवित हो रहे थे और बचपन में अन्य लोगो द्वरा स्थापित इंसानियत को याद कर रहे थे तब अशोक जी के मन में यह बात नहीं ई कि इन पिल्लों को आज भी टाट के घर की आवश्यकता है.....? क्यूँ नहीं सोचा उस कुतिया को घी-गुड-सौंठ-गौंड का हलवा चाहिए हो सकता है...........? माफ़ करना मैंने इसलिए यह सब लिखा क्यूंकि अपने यह सब किया जाना वर्णित नहीं किया है........... हमारे अन्य प्रबुद्ध वर्ग के दोस्तों ने भी फेस बुक में एक भारी-भरकम संवेदनशील टिपण्णी देकर अपने-अपने दायित्वों की इति समझ ली........? क्या हमारी संवेदना लिखने भर तक ही रह गयी है..........?

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  2. जोगी भाई,माफ़ कीजिए,'मैं बचपन में अन्य लोगो द्वरा स्थापित इंसानियत को याद' नहीं कर रहा था, बल्कि उन बच्चों में मैं स्वयं भी उस वक़्त शामिल था,और इसीलिए मेरे मन में आज भी उन असहाय पिल्लों को देख कर पीड़ा थी.मेरे मन में यह बात भी आई थी कि उन प...िल्लों के लिए भी आज 'टाट' की आवश्यकता है,लेकिन मेरे लिए ये संभव नहीं था,क्योंकि वह कुतिया मुझसे अनजान थी,और अपने पिल्लों की हिफाज़त के लिए मेरे लिए नुक्सान दायक हो सकती थी.आप शायद बचपन में इस स्तिथि से नहीं गुज़रे हैं,इसलिए आपको बताना चाहूँगा कि उस समय मुहल्ले में रहने वाले जानवर अमूमन मोहल्ले के लोगों को जानते थे,और अपवाद स्वरूप ही उन्हें नुक्सान पहुंचाते थे.उन बच्चों का रोजाना मुहल्ले के जानवरों के साथ खेलना होता था,और नवजात पिल्लों की माँ 'कुतिया' भी अपने पिल्लों को मुहल्ले के बच्चों के साथ सहज स्वीकार करती थी.
    दुसरा नम्र निवेदन ये भी करना चाहूंगा कि यदि हम किसी लाचार-मजबूर की सहायता किसी कारण वश नहीं कर पायें तो इसका मतलब ये भी नहीं कि उसके लिए कोई चिंतन भी ना करे.....या कि उसके बारे में कोई ज़िक्र ही ना करें! हर व्यक्ति हर काम नहीं कर सकता,लेकिन वो उनके बारे में सोचना ही छोड़ दे-- आपके विचारों का आदर करते हुए भी,इस सोच से मेरा सहमत होना मुश्किल है.कृपया इसे बहस ना समझे,ये सिर्फ मेरे विचार हैं.

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  3. श्रीमान जोगेन्द्र सिंह जी ,ऐसा नहीं संवेदना लिखने भर तक रह जाती हैं.मेरे घर एक बिल्ली ने आ कर ४ बच्चे दिए १ माह से अधिक के हो गये हैं माँ बच्चे गंदगी भी खूब कर रहें हैं और अब तो रात में लिहाफ में भी आ घुसने लगे हैंगालियाँ भी देता हूँ दूध रोटी भी कर रहा हूँ .पक्षियों के लिए परिडा भि लगा रखा है और कबूतरों को ज्वार बाजरा भी डालता हूँ . लाखों लोग भारत में ऐसा ही करते हैं हाँ सभी संवदेनशील नहीं हैं यह बात मानी जा सकती है तो जानवरों के बात अलग फुथपथों पर नंगी भूकी इंसानियत भी कम्पती देखी जा सकती है पर क्या हो .ऐसा ही था और ऐसा ही है जो नहीं होना चाहिए .बहरहाल आपका टिप्पणी सुंदर लगी बहुत मोजू है .धन्यवाद

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