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......बीस साल के लम्बे इंतज़ार के बाद आखिर 'संजय दत्त' को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 'सज़ा' सुना दी गई. इस महादेश में यूँ तो हर रोज 'सालों' के इंतज़ार के बाद कईं फैसले होते हैं, लेकिन चूँकि ये एक 'सेलिब्रिटी' से जुडा मामला है, इसलिये इसकी चर्चा चारों तरफ है.
......इस फैसले के बाद कईं लोगों को संजय दत्त 'मासूम' नज़र आ रहे हैं, तो कईं लोगों को फैसला देरी से सुनाए जाने का गम है ! 'संजू बाबा' तो खैर दुखी है ही. उनका ये कहना कि इस सज़ा को मेरे 'बच्चे' और मेरी 'पत्नी' भी भुगतेगी, सही होते हुए भी कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि ऐसी बातें तो 'अपराध' करने से पहले ज़ेहन में आ जानी चाहिए!
......बहरहाल,हमारे देश में 'सेलिब्रिटी' से जुड़े अपराधिक मामलों में फैसला, सज़ा के रूप में आना,महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी से 'कानून का राज' और 'न्याय व्यवस्था की सार्थकता' झलकती है. एक 'सेलिब्रिटी' को तो अपने आचरण का विशेष तौर पर ख्याल रखना चाहिए, क्योंकि चाहे-अनचाहे उसका अनुसरण अनेक लोग करते हैं, और अपना 'आदर्श' तक भी मानते हैं. उनका आचरण 'समाज' को 'देश' को प्रभावित करता है ,और इसलिए उनसे बेहतर आचरण की उम्मीद की जाती है.
......'सेलिब्रिटी' होने से या अपराध के बाद उपजी या दिखाने के लिये उपजा दी गई 'अच्छाईयों' से अपराध की गंभीरता कम हो जानी चाहिए, यह कैसा तर्क है? जहां तक फैसले में अत्यधिक देरी की बात है, तो उसमें क्या सिर्फ अदालत का ही दोष है? अक्सर गंभीर अपराधों के मामले में ये देखने में आता है कि अपराधी और उसके वकील की कोशिश ये रहती है कि कैसे भी करके मामले को इतना लंबा खिंचवा दिया जाए, कि समय के साथ गवाह,सुबूत और अंततः मामला ही इतना कमज़ोर हो जाए कि सज़ा की गुंजाईश ही ना रहे या फिर न्यूनतम सज़ा ही मिल पाए ! क्या इस हकीक़त से नज़रें चुराई जा सकती है ? फिर आखिर क्यों सिर्फ न्याय व्यवस्था को ही दोष दिया जाए ?
......'संजय दत्त' के अपराध के लिए सुप्रीम कोर्ट ने उसे देर से ही सही, उचित सज़ा सुना कर ना केवल न्याय की निष्पक्षता को ही सिद्ध किया है, अपितु कानून से ऊपर इस देश में कोई भी नहीं है, इस बात को भी पुख्ता ही किया है. इस सिद्ध हो चुके अपराध के लिए मिली सज़ा पर हाय तौबा मचाने वालों को ज़रा उन लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए,जो निरपराध होते हुए भी तथाकथित 'कानून के रखवालों', 'शातिर' लोगों की 'चालों' और अपनी 'मजबूरियों-लाचारियों' के कारण विभिन्न जेलों में सालों से सड रहे हैं!
......कोई सेलिब्रिटी है या बड़ा आदमी है इसलिए उसका 'गंभीर अपराध' भी क्षम्य है या केवल सांकेतिक सज़ा के काबिल है और कोई गरीब,मजबूर,लाचार है इसलिए उसका 'छोटा' अपराध,या 'बिना अपराध' किये भी वह वर्षों तक जेलों में सज़ा भुगत कर सड़ता रहे,इस सड़ी हुई सोच को कब्र में दफ़न करके ही एक बेहतर समाज और देश की कल्पना की जा सकती.
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पर इस देश का यही न्याय है.आज जो नेता इस क्षमा की वकालत कर रहें हैं,वे अपने और अपनी बिरादरी के पाँव मजबूत करने में लगे हैं. यदि कोई आम आदमी होता तो क्या उसकी सजा भी इतनी सहजता से कम हो जाती?यह बात न्याय पालिका पर अंगुली उठाने कि नहीं,सक्षम वकील खड़े कर अपना पक्ष रखने की है,जो न्याय पालिका को इस बात का विश्वास दिल सकने में सफल रहे.अब न्याय पालिका ने तप अपना कम कर दिया.राष्ट्रपति या राज्यपाल से सिफारिश करा कर इस सजा को माफ़ करा दिया जायेगा.हमें संजय दत्त से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं, पर यह कानून कि सर्वोच्चता का सवाल है.बच्चे हर अपराधी के छोटे होंगें,पीछे परिवार भी होगा.पर वोह सेलिब्रिटी नहीं होगा.इस लिए वह जेल में ५ या १० साल कि सजा काटेगा.
जवाब देंहटाएंडाक्टर साहब,टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सहमत हूँ.न्याय भी अगर हैसियत देख कर किया जाने लगे तो फिर वो 'अन्याय' की श्रेणी में ही आ जाता है !क्या यह भी अटपटी बात नहीं है कि गंभीर अपराधों की कठोर सज़ा लम्बी बहसों और गहन पड़ताल के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी जाए,और उसे राष्ट्रपति या राज्यपाल पलट दे!इस पर भी आज गहन विचार की ज़रूरत है.
न्याय सबके लिए बराबर होना चाहिए,हैसियत देखकर न्याय करने किये जाने पर न्याय व्यवस्था की अहमियत ही खत्म हो जायेगी.
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी,टिप्पणी के लिए शुक्रिया.
हटाएंमैनें भी इसी बात को कहने की कोशिश की है.