शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

!! मुक्तिका !!


**** !! मुझको जो भी दिखा है !! *****

मुझको जो भी दिखा है,
मैंने वो ही लिखा है.
'दांव-पेच' दुनियादारी का,
दुनिया से ही सिखा है.
'शायर' है ग़रीबों का वो,
हर शेर उसका तीखा है.
ढूंढे से भी मिलना मुश्किल,
जिसका इमां ना बिका है.
गले मिले,कोई पकडे गला,
अपना-अपना तरिका है ! 
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------ अशोक पुनमिया ------

2 टिप्‍पणियां:

  1. vaah ashok bhaai subh bhut khubsurt kr di he aapki in pnktiyon ne mza aa gyaa .akhtar khan akela kota rajsthan

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  2. मैं आपकी इस सुंदर रचना को साहिर साहिब का शेर नज़र करना चाहता हूँ
    दुनिया ने तजुर्बात ओ हवादिस की शक्ल में
    जो कुछ मुझे दिया है लोटा रहा हूँ मैं ..
    भाई अशोक जी ,आपकी रचना ने थोडा भावुक किया सो ये टूटे फुट विचार जो अभी जन्मे है आपको समर्पित हैं .
    रात का दिन के साथ निबाह नामुमकिन है मगर
    कोई एक मुकाम है जहाँ पर दोनों मिलते ज़रूर हैं
    चोटों के निशान तो मर कर ही जाते हैं ए दोस्त
    वक्त की धागे से ज़ख्मों के मूँह सिलते ज़रूर हैं
    मुस्कान के पीछे छिपी पीड़ा की बात यूँ समझये
    काँटों की नोंक पर दीखत में फूल खिलते ज़रूर हैं
    रिश्ते वही मारते हैं जिन पर विश्वास हो बहुत
    दिल छेदने से पहले दोस्त गले मिलते ज़रूर हैं
    चमन की सुहानी उड़ानों जब भी आता है ख़याल
    पिंजरे के तारों से परों के ज़ख्म सिलते ज़रूर हैं

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